Why we escape from responsibilities hindi (हम जिम्मेदारियों से भागते क्यों हैं?)

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Why we escape from responsibilities hindi

Why we escape from responsibilities hindi / हम जिम्मेदारियों से भागते क्यों हैं? / Why we escape from responsibilities in hindi / जिम्मेदारियों से भागने की असली वजह

“जिम्मेदारियों से भागना” यह एक ऐसा वाक्य है जो अक्सर सुनने को मिलता है. कुछ लोगों के माता पिता ये शिकायत करते हैं कि उनका बड़ा हो चुका बेटा भी जिम्मेदारियाँ नहीं समझता. कोई ना कोई बहाना बनाता रहता है तो कई लोग खुद ही ये स्वीकार करते हैं कि हाँ हम जिम्मेदारियों से भागते हैं. हमसे जिम्मेदारियों का बोझ उठाया नहीं जाता.

असल में हम सब बहाना ढूंढते हैं. पूरी दुनिया बहाना ढूढती है जिससे कि अपनी गलतियों और असफलताओं का पुलिंदा दूसरों के सर पे फेंक सके

Why we escape from responsibilities hindi

एक उम्र तक हम जिम्मेदारी से भागते हैं और जब तक हमें ये समझ आता है हमें जिम्मेदारी उठानी है तब तक जिम्मेदारी काफी बढ़ चुकी होती है. इतनी बढ़ चुकी होती है कि उसे उठाने में हम असहाय महसूस करते हैं

अब हम इस मुद्दे पे आते हैं कि हम बहाने क्यों ढूंढते हैं?

दरअसल जब हम किशोरावस्था में होते हैं तो अक्सर हम सब पर कोई दबाव नही होता. हम अपनी जिन्दगी अपने तरीके से जीते हैं. हम सबका एक ही काम होता है कॉलेज जाना, पढाई करना, कॉलेज से आना, दोस्तों के साथ घूमना फिरना, फ़िल्में देखना मटरगश्ती करना वगैरह वगैरह. ये वो समय होता है जब हमारे माँ बाप हममें अपना किशोरावस्था देखते हैं.. वो चाहते हैं कि हम अपनी जिन्दगी अच्छे से जी लें.. वो हमारे कन्धों पर कोई बोझ ना डालकर सारी जिम्मेदारियां खुद उठाने की कोशिश करते हैं. वो हमारे फिजूल के खर्चे उठाने से लेकर हमारी बदतमीजियों तक को झेलते हैं.. उनको ये लगता है कि हमारा बेटा अभी बड़ा हो रहा है धीरे-धीरे ये सारी बातें सीख जायेगा और अपनी जिम्मेदारियों को खुद समझने लगेगा. लेकिन कई बार ऐसा नहीं होता और बेटा हाथ से निकल जाता है (कम से कम दुनिया की नजर में तो ऐसा ही होता है)

ऐसा क्यों होता है?

इसके पीछे कई सारे मनोवैज्ञानिक कारण है:

  1. कई बार ऐसा होता है कि बरसों तक माँ बाप द्वारा नखरे उठाये जाने के कारण बेटे को ये एहसास ही नहीं होता कि मुझे भी कुछ करना है, मेरी भी कुछ जिम्मेदारियां हैं, मुझे भी कुछ बनना है इत्यादि.
  2. इसके अलावा कई बार ऐसा भी होता है कि लड़का अपनी असफलताओं से (चाहे वो किसी भी क्षेत्र में मिली हों ) इतना टूट चुका होता है कि उसकी कोई उम्मीद ही बाकी नहीं होती, सारी दुनिया उसे बेमानी लगती है. उसे लगता है कि उसे कोई नहीं समझता और इसीलिए वो कुछ करना ही नहीं चाहता
  3. ये तीसरा कारण हो सकता है कुछ अजीब लगे पर ये 100 प्रतिशत सच है. कई बार ऐसा भी होता है कि ज्यादा पढने लिखने के बावजूद (यहाँ ज्यादा पढने लिखने से मेरा आशय ये है कि M.A., B.A, B.ed., M.ed., D.phil, M.phil, P.hd., B.tech, M.tech, लहसुन पुदीना इत्यादि करने के बाद) अगर उसे नौकरी नहीं मिलती या उसे उसकी मनपसन्द का कोई काम नहीं मिलता तो वो निराश हो जाता है.. ऐसी स्थिति सबसे खतरनाक होती है. ये लोग दुनिया को बेवकूफ और तुच्छ समझते हैं, उनसे सीधे मुँह बात तक नहीं करते. दुसरे सारे डिप्रेशन रोगियों से अलग इनमें एक अलग ही “सुपेरिओरिटी काम्प्लेक्स” होता है, ऐसे लोग अलग ही दुनियां में जीते हैं. चाहे खाना खाने के लिए घर में अनाज का एक दाना ना हो लेकिन ये अपने खेतों में कुछ काम करने के बजाय हमेशा ये परिचर्चा करेंगे कि विश्व में अन्न उत्पादन कैसे बढाया जाए. जेब में चाहे एक फूटी कौड़ी ना हो लेकिन ये विश्व अर्थव्यवस्था पर ज्ञान पेलेंगे, चाहे कंचे खेलना ना आता हो लेकिन भारत को फुटबॉल में अग्रणी कैसे बनायें इसपे डिबेट करेंगे..

Why we escape from responsibilities hindi

ऐसे लोगों को समझाना आसान नहीं होता क्योंकि ये स्वयंभू समझदार लोग होते हैं. हो सकता है कि अगर आप उन्हें समझाने जाएँ तो वो आपकी डिग्री माग लें.. भले ही आप जिन्दगी में लाख सफल हों, करोड़ो कमाते हों लेकिन उनकी नजर में आप तुच्छ हैं क्योंकि आपके पास उनकी वाली डिग्री नहीं है. तो ऐसे लोगों को किसी काउन्सलिंग की नहीं डंडे की जरुरत होती है और कई केसेज में ये बीवी की बेलन की मार खा के सुधरते हैं

आइये आपको अपने एक दोस्त के बड़े भाई की कहानी सुनाता हूँ..

दोस्त के बड़े भैया मतलब मेरे भी बड़े भैया.. बहुत पढ़ाकू इंसान. जबरदस्त मेहनती

मतलब ये समझिये कि मेरे शहर में 40-40 कोस दूर जब कोई बच्चा पढाई करने से कतराता था तो इनका उदहारण देकर के उसको मोटिवेट किया जाता था. ऐसे थे अपने बड़के भैया.

जब हम लोग 10वीं में थे तो बड़े भाई साहब 12वीं में थे. सेल्फ स्टडी से ही इतने कॉंफिडेंट थे कि IIT का सपना देखते थे. सबको लगता भी था कि यार ये लड़का कर सकता है. ये कुछ करेगा. खैर 12वीं का रिजल्ट आया. 12वीं में कॉलेज टॉप किये, उधर IIT तो नहीं मिला लेकिन एक बढ़िया NIT मिल गया. यहाँ तक भाई साहब का दिमाग ठीक था. अपने पापा से बोले कि कोई बात नहीं पापा हम एक साल ड्राप नहीं करेंगे अगर IIT किस्मत में होगी तो M.tech में मिल जाएगी और NIT में एडमिशन मिल गया. इधर हम लोगो का भी 12वीं complete हो गया था और हम लोगों कि हैसियत के हिसाब से UPTU का एक कॉलेज मिल गया. मेरा दोस्त सोचता था कि भैया पढने में इतने अच्छे हैं उनको प्लेसमेंट में कोई दिक्कत नहीं आएगी. चलो हमें सर फोड़ने की जरुरत नहीं पड़ेगी धीरे धीरे मेरी भी लाइफ सेट हो जाएगी..

उधर भाईसाहब की जिद थी IIT. प्लेसमेंट में नहीं बैठे GATE क्लियर कर लिए थे IIT दिल्ली में एडमिशन मिल गया. अब असली कहानी शुरू होती है यहीं से.. पता नहीं उनको IIT दिल्ली में जाके कौन सा कीड़ा काटा, कौन सी नजर लगी कि पढाई लिखाई से उनका मोहभंग हो गया (यहाँ ये बाद ध्यान देने वाली है कि पढाई से मोहभंग होने वाली बात किसी को पता नहीं थी ना घरवालों को, ना हमलोगों को, ये सारी बातें हमें बाद में पता लगीं)

इसे भी पढ़ें: हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है? सफलता का असल मायने क्या हैं?

इधर मेरा और मेरे दोस्त का B.tech जैसे तैसे complete हो गया. दोनों मैकेनिकल से थे और हम दोनों लोगों की एक वर्कशॉप में जॉब लग गयी. सैलरी 10000 रूपये थी लेकिन फिर भी इस बात की ख़ुशी थी कि चलो अपने पैर पे खड़े तो हो गए.. धीरे धीरे सब सही हो जाएगा. भैया के बड़े पैकेज की आस अब भी थी लेकिन भैया ने कहा कि वो IES की तैयारी करेंगे और इसके लिए वो दिल्ली से होम टाउन आ गए

घर पे माँ बाप खुश थे कि बेटा कितना बड़ा सोचता है और एक वो नालायक है जो वहाँ लुधियाने में रह के एक वर्कशॉप पे काम कर रहा है. मैं वर्कशॉप पे काम जरुर करता था लेकिन गवर्नमेंट जॉब वाली बात मेरे दिमाग में भी थी इसीलिए मैं बैंक और SSC के पेपर दिया करता था लेकिन मेरी कमजोर अंग्रेजी के कारण मेरा सिलेक्शन रुक जाता था

घरवालों ने बोला कि नालायक यहीं आके बड़े भाई से कुछ पढ़ ले. मुझे भी ये ठीक लगा और मैं अंग्रेजी पढने बड़े भाई के पास घर पे आ गया.

बड़े भैया का सेड्यूल

अब बात करते हैं बड़े भैया के सेड्यूल की (M.tech करके होम टाउन return बड़े भैया की). तो अब बड़े भैया का हाल कुछ ऐसा था कि वो सुबह 11 बजे तड़के उठ जाते थे. उठने के बाद भर पेट नाश्ता करने के बाद वो सोफे पे टीवी के सामने बिराजते थे और तब तक नहीं हटते थे जब कि लंच का टाइम ना हो जाए. उनका लंच का टाइम 3 बजे का होता था. अगर बीच में मैं कुछ इंग्लिश की प्रॉब्लम पुछ्ने चला जाऊँ तो खा जाने वाली दृष्टि से देखने के बाद बड़े संयत और सख्त लहजे में कहते थे कि मुझसे ये छोटी-छोटी बातें मत पूछा कर. अगर कोई बड़ा टेक्निकल क्वेश्चन हो तो पूछ. अब भला मैं बैंक या SSC की प्रिपरेशन करने वाला उनसे बड़ा और टेक्निकल क्वेश्चन क्या पूछता? मैं चला आता था..

रात को उनका सेड्यूल होता था मेरे लैपटॉप पे जिओ का भरपूर उपयोग करके मनपसन्द विडियोज देखना (अपना लैपटॉप तो उन्होंने चलने की हालत में छोड़ा ही नहीं था)  धीरे-धीरे एक साल बीत गया. मेरा बैंक या SSC किसी में नहीं हुआ. उनका भी IES में नहीं हुआ.. और होता भी कैसे? आप कितने भी अच्छे स्टूडेंट क्यों ना हो बिना पढ़े, बिना तयारी किये आप कोई बड़ा एग्जाम क्वालीफाई नहीं कर सकते.

जब मैं उनसे पूछता था कि भाई पढ़ते क्यों नहीं तो उनका जबाब होता था.. “तुझे कुछ पता भी है कितना टफ पेपर होता है?”

मुझे अपनी औकात पता थी मैं अपने प्राइवेट जॉब में लौट आया.. भाईसाहब की वो दिनचर्या निर्बाध जारी है

2 साल बाद पिताजी की रिटायरमेंट है.. आगे देखतें हैं क्या होता है

Conclusion

तो अबतक आप समझ गए होंगे कि जिम्मेदारियों से भागना कोई नई बात नहीं है. सब ऐसा करते हैं.. हम सबके माँ बाप ने ऐसा किया है, उनके माँ बाप ने भी किया होगा (यहाँ हम उन बदनसीबों की बात नहीं कर रहे जिन्हें वक़्त से पहले ही जवान होना पड़ता है, सारी जिम्मेदारी उठानी पड़ती है)

जिम्मेदारी से भागने में कोई समस्या नहीं है.. समस्या है कब तक? कब तक हम भागते हैं ये महत्वपूर्ण है. वक़्त सबको जवान बना देता है, प्रकृति सबको समझ दे देती है. हमें बस जागते रहना है कि जितनी जल्दी हो हम उसे समझ सकें और उससे भागें नहीं उसका सामना करके आनंद ले सकें

अब जब जवान हुए हैं तो जवानी के हर रंग में एक ये रंग भी सही. इसे भी देखेंगे, छुएंगे, समझेंगे, भोगेंगे… भागेगें नहीं क्योंकि अब हम बच्चे नहीं रहे

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