Kajari Teej 2020: कजरी तीज का महत्व, शुभ मुहूर्त और पूजा विधि

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Kajri Teej

Kajari Teej 2020: कजरी तीज जिसे कजली तीज, बडी तीज और सातुडी तीज के नाम से भी जाना जाता है, मुख्य रूप से पूर्वी भारत में भादो माह की कृष्ण तृतीया को मनाया जाने वाला प्रसिद्द त्यौहार है। कई जगह इसे बूढ़ी तीज के नाम से भी जाना जाता है. हरियाली तीज या हरतालिका तीज की तरह कजरी तीज भी सुहागन महिलाओं के लिए बहुत अहम त्यौहार माना जाता है. विवाहित महिलाएं ये व्रत पति की लंबी आयु और सुख-समृद्धि के लिए करती हैं और इस दिन परंपरागत रूप से कजरी गीत गाती हैं.

भारतवर्ष त्यौहारो का देश है. यहाँ हर दिन एक पर्व है लेकिन आमतौर पर बरसात के चार महीनों में जिनको चातुर्मास नाम से भी जाना जाता है, त्यौहारों की संख्या कुछ कम है या आप ये भी कह सकते हैं कि ये त्यौहारों की शुरुवात का मौसम है. नागपंचमी से जो त्यौहारों का सिलसिला शुरू होता है वो साल भर चलता रहता है. कजरी का पर्व भी बरसात के मौसम में ही आता है।

कब होती है कजरी तीज

आमतौर पर कजरी तीज रक्षा बंधन के तीन दिन बाद और कृष्ण जन्माष्टमी से पांच दिन पहले मनाई जाती है. उत्तर भारतीय कैलेंडर के अनुसार, कजरी तीज भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की तृतीय को मनाई जाती है.

यह त्यौहार (Kajari Teej) उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और बिहार समेत हिंदी भाषी क्षेत्रों में प्रमुखता से और बहुत धूमधाम से मनाया जाता है. अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार यह तिथि जुलाई या अगस्त के महीने में आती है। इस वर्ष कजरी तीज 6 अगस्त को है। इस साल यानि कि सन 2020 का कजरी तीज पर्व 6 अगस्त, गुरूवार के दिन के दिन मनाया जायेगा.

कजरी तीज 2020 का शुभ मुहूर्त (Kajari Teej Shubh Muhurt 2020)

इस साल कजरी तीज का शुभ मुहूर्त 5 अगस्त की रात 10 बजकर 52 मिनट से 7 अगस्त की रात 12 बजकर 16 मिनट तक है.

  • तृतीया आरम्भ- 5 अगस्त को रात 10 बजकर 52 मिनट से
  • तृतीया समाप्त- 7 अगस्त को रात 12 बजकर 16 मिनट पर

कजरी तीज का महत्व (Kajri Teej Importance in Hindi)

हरियाली तीज, हरतालिका तीज की तरह कजरी तीज भी सुहागन महिलाओं के लिए प्रमुख त्यौहार माना जाता है. कजरी तीज पूरे साल मनाए जाने वाले तीन तीज त्योहारों में से एक है। अखा और हरियाली तीज की तरह विवाहित महिलायें कजरी तीज के लिए भी विशेष तैयारी करती हैं। ऐसा माना जाता है आज ही के दिन मां पार्वती ने भगवान शिव को अपनी कठोर तपस्या से प्राप्त किया था. 108 जन्म लेने के बाद देवी पार्वती भगवान शिव से शादी करने में सफल हुई. इसीलिए इस दिन को निस्वार्थ प्रेम के सम्मान के रूप में मनाया जाता है। यह निस्वार्थ भक्ति ही थी जिसने भगवान् शिव को अंततः देवी पार्वती को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करने के लिए बाध्य किया. इस दिन संयुक्त रूप से भगवान शिव और पार्वती की उपासना करनी चाहिए. इससे कुंवारी कन्याओं को अच्छा वर प्राप्त होता है और सुहागिनों को सदा सौभाग्यवती होने का वरदान मिलता है. जो महिलाएं कजरी तीज पर देवी पार्वती की पूजा करती है उन्हें अपने पति के साथ सम्मानित संबंध होने का आशीर्वाद मिलता है।

कजरी तीज की परम्पराएं (Traditions of Kajri Teej)

कजरी तीज पर निम्नलिखित परम्पराओं का विशेष महत्व है:

  • आज के दिन सुहागन महिलाएं पति की लंबी आयु के लिए कजरी तीज/ कजली तीज का व्रत रखती हैं जबकि कुंवारी कन्याएं अच्छा वर पाने के लिए यह व्रत करती हैं।
  • कजरी तीज पर जौ, गेहूं, चने और चावल के सत्तू में घी और मेवा मिलाकर तरह-तरह के पकवान बनाये जाते हैं। चंद्रोदय के बाद भोजन करके व्रत तोड़ते हैं।
  • इस दिन गायों की विशेष रूप से पूजा की जाती है। आटे की सात लोइयां बनाकर उन पर घी, गुड़ रखकर गाय को खिलाने के बाद ही भोजन करने की परम्परा है।
  • कजली तीज पर घर में झूले डाले जाते हैं और महिलाएं एकत्रित होकर नाचती-गाती हैं।
  • इस दिन कजरी गीत गाने की विशेष परंपरा है। यूपी और बिहार में महिलाएं ढोलक की थाप पर कजरी गीत गाती हैं.

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कजरी तीज की पूजा विधि (Kajari Teej Puja Vidhi)

कजरी तीज के अवसर पर नीमड़ी माता की पूजा करने का विधान है। पूजन से पहले मिट्टी व गोबर से दीवार के सहारे एक तालाब जैसी आकृति बनाते हैं. इसके बाद उसके पास नीम की टहनी को रोप देते हैं। तालाब में कच्चा दूध और जल डालते हैं और किनारे पर एक दीया जलाकर रखते हैं। थाली में नींबू, ककड़ी, केला, सेब, सत्तू, रोली, मौली, अक्षत आदि रख लेते हैं। इसके अलावा लोटे में कच्चा दूध लेते हैं और फिर शाम के समय श्रृंगार करने के बाद नीमड़ी माता की पूजा इस प्रकार करते हैं:

  • सबसे पहले नीमड़ी माता को जल व रोली के छींटे दें और चावल चढ़ाएं।
  • नीमड़ी माता के पीछे दीवार पर मेहंदी, रोली और काजल की 13-13 बिंदिया अंगुली से लगाएं। मेंहदी, रोली की बिंदी अनामिका अंगुली से लगाएं और काजल की बिंदी तर्जनी अंगुली से लगाएं.
  • नीमड़ी माता को मोली चढ़ाने के बाद मेहंदी, काजल और वस्त्र चढ़ाएं। दीवार पर लगी बिंदियों के सहारे लच्छा लगा दें।
  • नीमड़ी माता को कोई फल और दक्षिणा चढ़ाएं और पूजा के कलश पर रोली से टीका लगाकर लच्छा बांधें।
  • पूजा स्थल पर बने तालाब के किनारे पर रखे दीपक के उजाले में नींबू, ककड़ी, नीम की डाली, नाक की नथ, साड़ी का पल्ला आदि देखें। इसके बाद चंद्रमा को अर्घ्य दें।

चंद्रमा को अर्घ्य देने की विधि

  • कजरी तीज पर संध्या के समय नीमड़ी माता की पूजा के बाद चंद्रमा को अर्घ्य देने की परंपरा है।
  • चंद्रमा को जल के छींटे देकर रोली, मोली, अक्षत चढ़ायें और फिर भोग अर्पित करें।
  • चांदी की अंगूठी और आखे (गेहूं के दाने) हाथ में लेकर जल से अर्घ्य दें और एक ही जगह खड़े होकर चार बार घूमें।

कजरी तीज (Kajari Teej ) व्रत के नियम

  • कजरी तीज का व्रत सामान्यत: निर्जला रहकर किया जाता है। गर्भवती स्त्री को फलाहार और पानी पीने की छूट है।
  • कभी कभी आसमान में बादल होने की वजह से चांद उदय होते नहीं दिख पाता है उस स्थिति में रात्रि में लगभग 11:30 बजे आसमान की ओर अर्घ्य देकर व्रत खोला जा सकता है।
  • उद्यापन के बाद संपूर्ण उपवास संभव नहीं हो तो फलाहार किया जा सकता है।

प्रसिद्द कजरी गीत

कजरी तीज (Kajari Teej) क्यों मनाई जाती है?/ कजरी तीज की कहानी

कजरी तीज से जुड़ी कई कहानियां है जिन्हें कजरी तीज मनाने का कारण माना जाता हैं।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, कजली या कजरी मध्य भारत में स्थित एक घने जंगल का नाम था. जंगल के आस-पास के क्षेत्र में राजा दादूरई का शासन था। वहाँ रहने वाले लोग अपने स्थान कजली के नाम पर गाने गाते थे ताकि उनकी जगह का नाम लोकप्रिय हो सकें। कुछ समय पश्चात् राजा दादूरई का निधन हो गया, उनकी पत्नी रानी नागमती ने सती प्रथा के अनुसार खुद को सती कर लिया। इस दुःख में वहाँ के लोगों ने रानी नागमती को सम्मानित करने के लिए कजरी मनाना शुरू कर दिया। इस दिन वे उपवास रखते थे और गीत गाते थे.

कजरी तीज का ऐतिहासिक मेला

कजरी तीज के अवसर पर राजस्थान के बूंदी में तीज का मेला लगता है. इस मेले का भी एक इतिहास रहा है। बूंदी रियासत में गोठडा के ठाकुर बलवंत सिंह रहते थे। एक बार उनके किसी मित्र के कहा कि जयपुर में तीज की भव्य सवारी निकलती है, अगर अपने यहाँ भी निकले तो क्या बात हो. कहने वाले साथी ने तो यह बात सहज में कह दी पर ठाकुर बलवंत सिंह के दिल में यह टीस-सी लग गई। उन्होंने जयपुर की उसी तीज को जीत कर लाने का मन बना लिया। ठाकुर बलवंत सिंह अपने विश्वनीय और जांबाज सैनिकों को लेकर सावन की तीज पर जयपुर पहुंच गए। निश्चित कार्यक्रम के अनुसार जयपुर के चहल-पहल वाले मैदान से तीज की सवारी, शाही तौर-तरीकों से निकल रही थी। ठाकुर बलवंत सिंह अपने जांबाज साथियों के पराक्रम से जयपुर की तीज को गोठडा ले आए और तभी से तीज माता की सवारी गोठडा में निकलने लगी।

ठाकुर बलवंत सिंह की मृत्यु के बाद बूंदी के राव राजा रामसिंह उसे बूंदी ले आए और उनके शासन काल में तीज की सवारी भव्य रूप से निकलने लगी। इस सवारी को भव्यता प्रदान करने के लिए शाही सवारी भी निकलती थी। इसमें बूंदी रियासत के जागीरदार, ठाकुर व धनाढय लोग अपनी परम्परागत पोशाक पहनकर पूरी शानो-शौकत के साथ भाग लिया करते थे। सैनिकों द्वारा शौर्य का प्रदर्शन किया जाता था।  सुहागिनें सजी-धजी व लहरिया पहन कर तीज महोत्सव में चार चाँद लगाती थीं। इक्कीस तोपों की सलामी के बाद नवल सागर झील के सुंदरघाट से होती हुई तीज सवारी रानी जी की बावड़ी तक जाती थी। वहाँ पर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। नृत्यांगनाएँ अपने नृत्य से दर्शकों का मनोरंजन करती थीं। करतब दिखाने वाले कलाकारों को सम्मानित किया जाता था. मान-सम्मान और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बाद तीज सवारी वापिस राजमहल में लौटती थी।

दो दिवसीय तीज सवारी के अवसर पर विभिन्न प्रकार के जन मनोरंजन कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते थे, जिनमें दो मदमस्त हाथियों का युद्ध होता था, जिसे देखने वालों की भीड़ उमड़ती थी।

स्वतन्त्रता के बाद भी तीज की सवारी निकालने की परम्परा बनी हुई है। अब दो दिवसीय तीज सवारी निकालने का दायित्व नगर परिषद उठा रहा है। राजघराने द्वारा तीज की प्रतिमा को नगरपालिका को नहीं दिए जाने से तीज की दूसरी प्रतिमा निर्मित करा कर प्रतिवर्ष भाद्रपद माह की तृतीया को तीज सवारी निकालने की स्वस्थ सांस्कृतिक परम्परा बनी हुई है।

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