Shaishwawastha Infancy in Hindi शैशवावस्था: परिभाषा, विशेषताएं और शिक्षा का स्वरूप

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Shaishwawastha Infancy in Hindi

Shaishwawastha Infancy in Hindi/ शैशवावस्था की परिभाषा, शैशवावस्था की प्रमुख विशेषताएं और शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप

बाल विकास के अंतर्गत बाल विकास की प्रारंभिक अवस्था जिसे शैशवावस्था कहा जाता है का बहुत बड़ा महत्व है.

महान मनोवैज्ञानिक फ्रॉयड ने लिखा है कि-

“मानव शिशु जो कुछ भी बनता है वह जीवन के प्रारंभिक 4 से 5 वर्षों में ही बन जाता है।“ “The little human being is frequently a finished product in his four or fifth year.”

क्रो एंड क्रो ने कहा है-

“बीसवीं शताब्दी बालक की शताब्दी है।“ “The twentieth century has come to be designated as the century of a child.”

शैशवावस्था (Shaishwawastha Infancy in Hindi)

बालक के विकास एवं क्रियाओं का जितना अच्छा और सटीक विश्लेषण डॉ. फ्रॉयड, एडलर और जंग आदि मनोविश्लेषणवादियो ने किया है, उतना अन्य किसी ने नहीं किया है। इनके अनुसार शैशवावस्था में मस्तिष्क की सतर्कता, ज्ञानेंद्रियों की तेजी, सीखने और समझने की अधिकता अपने चरमोत्कर्ष पर होती हैं। शैशवावस्था जन्म से 6 साल की उम्र तक की अवस्था को कहा जाता है।

शायद यही वजह है कि फ्रॉयड ने लिखा है कि “मानव शिशु जो कुछ भी बनता है वह जीवन के प्रारंभिक 4 से 5 वर्षों में ही बन जाता है।“ “The little human being is frequently a finished product in his four or fifth year.”

इस प्रकार से यह स्पष्ट हो जाता है कि बालक की शैशवावस्था या शैशवकाल उसके जीवन का क्रम निश्चित करने वाला समय होता है। इसी आधार पर शैशवकाल को जन्म से 6 वर्ष तक का समय माना गया है।
क्रो एंड क्रो ने भी इस काल को अत्यधिक महत्व दिया है। Shaishwawastha Infancy in Hindi

क्रो एंड क्रो ने कहा है कि “बीसवीं शताब्दी को बालक की शताब्दी कहा जाता है।” The twentieth century has come to be designated as the century of a child.

शैशवावस्था/ शैशवकाल की विशेषताएं (Characteristics of Infancy in Hindi)

शैशवास्था/ शैशवकाल की सारी विशेषताओं को क्रमबद्ध रूप से निम्नलिखित तीन भागों में बांटा जा सकता है:

  • शैशवावस्था की विकासात्मक विशेषताएं
  • शैशवावस्था की अधिगम संबंधी विशेषताएं
  • शैशवावस्था की सामाजिक विशेषताएं

शैशवावस्था की विकासात्मक विशेषताएं (Development Characteristics of infancy in Hindi)

शैशवकाल की प्रमुख विशेषताएं उसके विकास में निहित होती हैं। यह विकास बालक को सभी क्षेत्रों में परिपक्व बनाता है। अतः विकासात्मक विशेषताओं में हम बालक के शारीरिक, मानसिक, और संवेगात्मक विकास से संबंधित परिपक्वता का अध्ययन करते हैं.

शैशवावस्था में बालक का शारीरिक विकास बहुत तेजी से होता है। उसकी लंबाई और वजन दोनों में तीव्र गति से वृद्धि होती है जिसका प्रभाव उसकी कर्मेंद्रियों, आंतरिक अंगों, मांसपेशियों आदि पर भी पड़ता है। विकास की यह तीव्रता 3 वर्ष तक ही रहती हैं। बाद में इसकी गति धीमी होने लगती है। इसी प्रकार से शिशु की मानसिकता में भी विकास होने लगता है। इसी अवस्था में शिशु की जन्मजात बुद्धि और मानसिक प्रक्रिया में भी तीव्रता से विकास होता है। अतः बालक संवेदना, प्रत्यक्षीकरण, ध्यान, स्मृति, कल्पना क्षेत्र में अपना हस्तक्षेप प्रारंभ कर देता है। Shaishwawastha Infancy in Hindi

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मनोवैज्ञानिकों ने शिशु का प्रारंभ रोने से माना है क्योंकि बच्चा पैदा होने के तुरंत बाद रोता है। शैशवावस्था में बालक में मूल प्रवृत्ति और प्रतिक्रिया सम्बंधित व्यवहार भी देखने को मिलता है। इसमें रोना, हंसना, तथा क्रोधित होना प्रमुख हैं। इसी को मैकडूगल ने भय प्रेम पीड़ा तथा क्रोध आदि संवेगों में व्यक्त किया है।

इस प्रकार से हम देख सकते हैं कि शैशवावस्था में बालकों में शारीरिक मानसिक और संवेगात्मक तीनों क्षेत्रों में तीव्र विकास होता है।

शैशवावस्था की अधिगम संबंधी विशेषताएं (Characteristics of Infancy Regarding Learning)

बालक अपने विकास के साथ-साथ कुछ अनुभव संग्रहित करता है जो अधिगम के रूप में परिवर्तित होते हैं और आगे की क्रियाओं में सहायक होते रहते हैं।
शैशवकाल सीखने के लिए सबसे उपयुक्त काल होता है। गैसेल का विश्वास है कि बालक प्रथम 6 वर्षों के बाद में 12 वर्ष की आयु तक अधिक सीखने की क्षमता रखता है।

शैशवावस्था में सीखना जिज्ञासा से प्रारंभ होता है। जिज्ञासा और संसार की ओर आकर्षण मानव का स्वभाव है। वह विभिन्न क्षेत्रों में आकर्षित होता रहता है। उसके माता पिता, बड़े बूढ़े, रिश्तेदार, साथी संबंधी आदि जिज्ञासा को शांत करते हैं और ज्ञान देते हैं। इसी को बालक का सीखना कहते हैं। शैशवकाल में सीखने के अनुभव, अनुकरण, कल्पना, खेल आदि प्रणालियां अपना अपना प्रभाव डालती रहती है। Shaishwawastha Infancy in Hindi

अधिगम के प्रणेता पॉवलोव, थार्नडाइक, कोहलर, वाटसन और वर्दीमार आदि वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों से इन प्रणालियों के प्रभाव को स्पष्ट किया है। इस समय बालक में जिज्ञासा के प्रति ललक होती है। वह मन की धारणा शक्ति का प्रयोग करके शीघ्र सीखने की क्षमता में वृद्धि करता है। वह अपने स्मृति पटल पर सही चित्र को अंकित करके और क्रिया को बार-बार करके अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करता है। अतः नवीन शिक्षण प्रणाली में बालक को दिया जाने वाला ज्ञान, क्रिया और अनुभव पर आधारित माना गया है।

सामाजिक विशेषताएं (Social Characteristics of Infancy)

मानव स्वभाव से ही एक सामाजिक प्राणी है। मानवीय स्वभाव समूह या समाज में रहने का है। समाज से बिल्कुल अलग मानव के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। अतः उसका सामाजीकरण समाज के द्वारा ही किया जाता है। इस प्रकार से उसमें अपनी समाज की सभी विशेषताओं का धारण, प्रकटीकरण, और स्वीकृति आदि प्राप्त होती रहती है।

यही एक तथ्य है जो प्रत्येक बालक को अपने समाज से जोड़ता है। वैलेंटाइन ने लिखा है कि “4 या 5 वर्ष के बालक में अपने छोटे भाई बहनों या साथियों की रक्षा करने की भावना होती है। वह 2 से 5 वर्ष के बालकों के साथ खेलना पसंद करता है। वह अपनी वस्तुओं में अन्य को साझीदार बनाता है। वह दूसरे बालकों के अधिकारों की रक्षा करता है और दुख में उनको सांत्वना देने का प्रयास करता है। Shaishwawastha Infancy in Hindi

शैशवकाल में ही सामाजिक विशेषताएं ग्रहण की जाती हैं। बालक में आत्मप्रेम, निर्भरता, समूह-प्रेम आदि का विकास होता है। इस अवस्था में बालक नैतिकता से अपरिचित रहता है।

मीड के अनुसार- “शैशवकाल में बालक में स्वयं के भाव की प्रचुरता होती है जो धीरे-धीरे हम के अभाव में परिवर्तित हो जाती है। आपने यह खुद अनुभव किया होगा कि जब बालक घुटनों के बल खिसकने लगता है तो वह पारिवारिक सदस्यों के अलावा बाहर खेल रहे बालकों के पास भी जाने का प्रयास करता है और अपनी ख़ुशी को भी विभिन्न संकेतों और क्रियाओं द्वारा प्रदर्शित करता है। इस बात से यह स्पष्ट होता है कि शैशवावस्था में ही बालक में सामाजिक भाव विकसित होने लगते हैं।

शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप (Form of Education in Infancy in Hindi)

बालक के सम्पूर्ण और सर्वांगीण विकास में शैशवावस्था में बालकों की शिक्षा का बहुत महत्व है। इस अवस्था में बालक बहुत तेजी से सीखते हैं। शिक्षकों को चाहिए कि इस अवस्था में बालक की सीखने की क्षमता और ललक को बढ़ाया जाए। शैशवावस्था में बालकों की शिक्षा व्यवस्था के निम्नलिखित आधारभूत नियम हैं।

उपयुक्त पर्यावरण (Appropriate Environment)

शिशु का विकास प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों तरीकों से होता है अतः उनका पर्यावरण सुखद, शांत, और स्वस्थ होना चाहिए। बालकों के विकास को उसके वंशानुगत गुणों और अवगुणों से ना जोड़कर उनके अच्छे से अच्छे विकास के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। इस प्रकार से बालक अपने परिवार और विद्यालय में समरसता का अनुभव करके अधिक तेजी से सीखते हैं।

सीखने के अवसर (Opportunities for Learning)

बालकों में जिज्ञासा की प्रवृत्ति बहुत ही तीव्र पायी जाती है। वह अपने पर्यावरण में पाई जाने वाली वस्तुओं के प्रति शीघ्र ही जिज्ञासा व्यक्त करने लगते हैं। अतः इनको सीखने,  जिज्ञासा जागृत करने और जिज्ञासा शांत करने के लिए सभी प्रकार के साधन एवं अवसर प्रदान किए जाने चाहिए। इन अवसरों से वे अपने ज्ञान की संचित निधि में व्यावहारिक रूप से वृद्धि करते हैं।

उपयुक्त विधि (Appropriate Method)

मोंटेसरी, फ्रोबेल, ह्यूरिस्टिक, खेल एवं अनेक प्रणालियां, शिशु शिक्षण के लिए प्रारंभ हुई। इन सभी विधियों में एक बात कॉमन है कि ये सभी विधियां कार्य को स्वयं करके सीखने पर बल देती हैं। इसमें बालक खेले-खेल में ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं।

प्रयत्न और भूल के द्वारा, अनुकरण के द्वारा, एवं  सूझ आदि  प्रविधियों का सहारा लेकर शिक्षक या माता-पिता को बच्चों के सर्वांगीण विकास में सहयोग करना चाहिये। इस प्रकार से बालक अपने समय एवं शक्ति का सही उपयोग कर पाते हैं।

पाठ्यक्रम (Curriculum)

शैशवावस्था में बालक का पाठ्यक्रम पूर्ण रूप से व्यावहारिक होना चाहिए। इस प्रकार से उसको संसार की यथार्थता का ज्ञान आसानी से कराया जा सकता है। इस अवस्था के पाठ्यक्रम में ज्ञान की विविधता पर जोर देना चाहिए ना कि विषयों के निश्चितता के बारे में। शैशवावस्था के पाठ्यक्रम का निर्धारण इस प्रकार से होना चाहिए कि उसके द्वारा बालकों को आत्मनिर्भर बनाया जा सके। अच्छी आदतों, मानसिक क्रियाओं का शिक्षण, मानवीय गुणों का विकास, सामाजिक भावना और ज्ञानेंद्रियों एवं कर्मेंद्रियों के प्रशिक्षण आदि का ज्ञान इस अवस्था के पाठ्यक्रम में उपयुक्त होगा। Shaishwawastha Infancy in Hindi

शिक्षक की भूमिका (The Role of Teacher)

वही शिक्षक योग्य और सफल माना जाता है जो बालक की प्रवृति को पहचानता है और उनकी भावनाओं को समझता है। बालक का शिक्षण बालक की क्रियाओं, विकास के क्रम और परिवर्तनशीलता को ध्यान में रखकर होना चाहिए। हमें ये हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि बालक एक सजीव प्राणी है, उसकी भावनाएं होती हैं और वह एक व्यक्तित्व का मालिक है। इसके साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि बालक के साथ जैसा व्यवहार किया जाता है इसका उसके अवचेतन मन पर बहुत प्रभाव पड़ता है। अतः बालक का शिक्षण तभी संभव है जब शिक्षक अपना कर्तव्य सही रूप से पूरा करें एवं शिक्षा के प्रति समर्पित हो।

शैशवावस्था की उपर्युक्त शिक्षा प्रक्रिया को ध्यान में रखते हुए शिक्षा आयोग ने (1964 – 66) शिशु शिक्षा पर विशेष बल देते हुए लिखा कि ” 3 से 10 वर्ष के बीच का समय बालक के शारीरिक, संवेगात्मक और मानसिक विकास के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। अतः हम पूर्व माध्यमिक शिक्षा के अधिक से अधिक संभव विस्तार की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं।“

“The years between 3 and 10 are of the greatest importance in child’s physical emotional and intellectual development. We therefore recognize the need to develop pre-primary education as extensively as possible.”

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