Raskhan ke Savaiye (रसखान के प्रसिद्द सवैये व्याख्या सहित)

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Raskhan ke Savaiye/ रसखान के सवैयों का भावार्थ

मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥


या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराय बिसारौं॥
रसखान कबौं इन आँखिन सों, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥


मोरपखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरें पहिरौंगी।
ओढ़ि पितंबर लै लकुटी बन गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी॥
भावतो वोहि मेरो रसखानि सों तेरे कहे सब स्वांग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी॥


काननि दै अँगुरी जबहीं मुरली धुनि मन्द बजैहै।
मोहनी तानन सों अटा चढ़ि गोधन गैहे तौ गैहै।।
टेरि कहौं सिगरे ब्रज लोगानि काल्हि कोऊ कितनो समुझैहै।
माइ री वा मुख की मुसकानि सम्हारी न जैहै, न जैहे, न जैहे।।


रसखान के प्रसिद्द सवैयों की व्याख्या (Raskhan Ke Savaiye Explanation in Hindi)

रसखान के सवैये का सारांश (Summary of Raskhan Savaiye)

रसखान एक मुस्लिम कवि होते हुए भी एक सच्चे कृष्णभक्त थे. उनके द्वारा रचित सवैये में कृष्ण एवं उनकी लीला-भूमि वृन्दावन की प्रत्येक वस्तु के प्रति उनका लगाव प्रकट हुआ है। प्रथम सवैये में कवि रसखान कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति का उदाहरण पेश करते हैं। वह कहते हैं कि ईश्वर उन्हें चाहे मनुष्य बनाए या पशु-पक्षी या फिर पत्थर, इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। वो सिर्फ कृष्ण का साथ चाहते हैं। इस तरह हम रसखान के सवैयों में कृष्ण के प्रति अपार प्रेम तथा भक्ति-भाव को देख सकते हैं। अपने दूसरे सवैये में रसखान ने अपने ब्रज-प्रेम का वर्णन किया है। वे ब्रज के ख़ातिर संसार के सभी सुखों का त्याग कर सकते हैं।

अपने तीसरे सवैये में रसखान ने गोपियों के कृष्ण के प्रति अतुलनीय प्रेम को दर्शाया है. उन्हें श्री कृष्ण की हर वस्तु से प्रेम है। गोपियाँ स्वयं कृष्ण का रूप धारण कर लेना चाहती हैं, ताकि वो कभी उनसे जुदा ना हो सकें। अपने अंतिम सवैये में रसखान कृष्ण की मुरली की मधुर ध्वनि तथा गोपियों की विवशता का वर्णन करते हैं कि किस प्रकार गोपिया चाहकर भी कृष्ण को प्रेम किए बिना नहीं रह सकतीं। Raskhan ke Savaiye

आइये अब हम प्रत्येक सवैये की विस्तृत व्याख्या देखते हैं:

मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥

व्याख्या 1: प्रस्तुत पंक्तियों में कवि रसखान के श्री कृष्ण एवं उनके गांव गोकुल-ब्रज के प्रति लगाव का वर्णन हुआ है। रसखान का यह मानना है कि ब्रज के कण-कण में श्री कृष्ण बसे हुए हैं। इसी वजह से वे अपने प्रत्येक जन्म में ब्रज की धरती पर जन्म लेना चाहते हैं। अगर उनका जन्म मनुष्य के रूप में हो, तो वो गोकुल के ग्वालों के बीच में जन्म लेना चाहते हैं। पशु के रूप में जन्म लेने पर, वो गोकुल की गायों के साथ घूमना-फिरना चाहते हैं। अगर वो पत्थर भी बनें, तो उसी गोवर्धन पर्वत का पत्थर बनना चाहते हैं, जिसे श्री कृष्ण ने इन्द्र के प्रकोप से गोकुलवासियों को बचाने के लिए अपनी उँगली पर उठाया था। अगर वो पक्षी भी बनें, तो वो यमुना के तट पर कदम्ब के पेड़ों में रहने वाले पक्षियों के साथ रहना चाहते हैं। इस प्रकार कवि चाहे कोई भी जन्म लें, वो रहना ब्रज की भूमि पर ही चाहते हैं। इस सवैये से कवि रसखान का भगवन श्री कृष्ण के प्रति अगाध प्रेम और श्रद्धा प्रदर्शित होती है.

व्याख्या 2: कवि रसखान हर दशा में अपने आराध्य श्रीकृष्ण का सामीप्य पाने की इच्छा रखते हैं. वे कहते हैं कि यदि मैं अगले जन्म में मनुष्य योनि में जन्म लूँ तो मेरी उत्कट इच्छा है कि मैं ब्रज में गोकुल गाँव के ग्वालों के बीच ही अर्थात् एक ग्वाला बनकर निवास करूँ। यदि मैं पशु बनूँ तो फिर मेरे वश में ही क्या है? अर्थात् पशु योनि में जन्म लेने पर मेरा कोई वश नहीं है, फिर भी चाहता हूँ कि मैं नन्द की गायों के मध्य में चरने वाला एक पशु अर्थात् उनकी गाय बनूँ। यदि पत्थर बनूँ तो उसी गोवर्धन पर्वत का पत्थर बनूँ जिसे श्रीकृष्ण ने इन्द्र के कोप से ब्रज की रक्षा करने के लिए छत्र की तरह हाथ में उठाया था, धारण किया था। यदि मैं पक्षी योनि में जन्म लूँ तो मेरी इच्छा है कि मैं यमुना के तट पर स्थित कदम्ब की डालियों पर बसेरा करने वाला पक्षी बनूँ अर्थात् हर योनि और हर जन्म में अपने आराध्य श्रीकृष्ण और ब्रजभूमि का सामीप्य चाहता हूँ और यही मेरी प्रभु से विनती है। Raskhan ke Savaiye

या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराय बिसारौं॥
रसखान कबौं इन आँखिन सों, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥

व्याख्या 1: प्रस्तुत पंक्तियों में कवि रसखान का भगवान श्रीकृष्ण एवं उनसे जुड़ी वस्तुओं के प्रति बड़ा गहरा लगाव देखने को मिलता है। वे कृष्ण की लाठी और कंबल के लिए तीनों लोकों का राज-पाठ तक छोड़ने के लिए तैयार हैं। अगर उन्हें नन्द की गायों को चराने का मौका मिले, तो इसके लिए वो आठों सिद्धियों एवं नौ निधियों के सुख को भी त्याग सकते हैं। जब से कवि ने ब्रज के वनों, बगीचों, तालाबों इत्यादि को देखा है, वे इनसे दूर नहीं रह पा रहे हैं। जब से कवि ने करील की झाड़ियों और वन को देखा है, वो इनके ऊपर करोड़ों सोने के महल भी न्योछावर करने के लिए तैयार हैं।

व्याख्या 2: श्रीकृष्ण की प्रिय वस्तुओं के प्रति अपना अतिशय अनुराग दर्शाते हुए कवि रसखान कहते है कि मैं कृष्ण की लाठी या छङी और कंबल मिल जाने पर तीनों लोकों का सुख-साम्राज्य छोङने को तैयार हूँ। यदि नन्द की गायें चराने का सौभाग्य मिल तो मैं आठों सिद्धियों और नौ निधियों के सुख को भी त्याग दूँ, अर्थात् नन्द की गायें चराने का सुख मिलने पर अन्य सब सुख त्याग सकता हूँ। जब मेरे इन नेत्रों को ब्रजभूमि के बाग, तालाब आदि देखने को मिल जाए और करी के कुंजों में विचरण करने का सौभाग्य या अवसर मिल जाएँ ता मैं उस सुख पर सोने के करोङों महलों को न्यौछावर कर सकता हूँ। कवि रसखान यह कहना चाहते हैं कि मुझे अपने आराध्य श्रीकृष्ण से सम्बन्धित सभी वस्तुओं से जो सुख प्राप्त हो सकता है, वह अन्य किसी भी वस्तु से नहीं मिल सकता। Raskhan ke Savaiye

मोरपखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरें पहिरौंगी।
ओढ़ि पितंबर लै लकुटी बन गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी॥
भावतो वोहि मेरो रसखानि सों तेरे कहे सब स्वांग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी॥

व्याख्या 1: प्रस्तुत पंक्तियों में रसखान ने कृष्ण से अपार प्रेम करने वाली गोपियों के बारे में बताया है, जो एक-दूसरे से बात करते हुए कह रही हैं कि वो कान्हा द्वारा उपयोग की जाने वाली वस्तुओं की मदद से कान्हा का रूप धारण कर सकती हैं। मगर, वो कृष्ण की मुरली को धारण नहीं करेंगी। यहाँ गोपियाँ कह रही हैं कि वे अपने सिर पर श्री कृष्ण की तरह मोरपंख से बना मुकुट पहन लेंगी। अपने गले में कुंज की माला भी पहन लेंगी। उनके सामान पीले वस्त्र पहन लेंगी और अपने हाथों में लाठी लेकर वन में ग्वालों के संग गायें चराएंगी। गोपियाँ कह रही है कि कृष्ण हमारे मन को बहुत भाते हैं, इसलिए मैं तुम्हारे कहने पर ये सब कर लूँगी। मगर, मुझे कृष्ण के होठों पर रखी हुई मुरली अपने होठों से लगाने के लिए मत बोलना, क्योंकि इसी मुरली की वजह से कृष्ण हमसे दूर हुए हैं। गोपियों को लगता है कि श्री कृष्ण मुरली से बहुत प्रेम करते हैं और उसे हमेशा अपने होठों से लगाए रहते हैं, इसीलिए वे मुरली को अपनी सौतन या सौत की तरह देखती हैं।

व्याख्या 2: श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम भक्ति रखने वाली कोई गोपी अपनी सखी से कहती है कि मैं प्रियतम कृष्ण की रूप-छवि को अपने शरीर पर धारण करना चाहती हूँ। इस कारण मैं अपने सिर पर मोर पंखों का मुकुट धारण करूँगी और गले में घुँघुची की वनमाला पहनूँगी। मैं शरीर पर पीला वस्त्र पहनकर कृष्ण के समान ही हाथ में लाठी लेकर अर्थात् उन्हीं के वेश में गायों व ग्वालिनों के साथ घूमती रहूँगी अर्थात् गायें चराऊँगी। जो-जो बातें उन आनन्द के भण्डार कृष्ण को अच्छी लगती हैं, वे सब मैं करूँगी और तेरे कहने पर कृष्ण की तरह ही वेशभूषा, स्वांग, दिखावा, व्यवहार आदि करूँगी। रसखान कवि के अनुसार उस गोपी ने कहा कि मैं मुरलीधर कृष्ण की मुरली को अपने होठों पर कभी धारण नहीं करूँगी। आशय यह है कि मुरली प्रियतम कृष्ण को बहुत प्रिय है, इसके अधरों पर रखने का अधिकार भी उनका ही है और वे ही इससे मधुर तान सुना सकते हैं। Raskhan ke Savaiye

काननि दै अँगुरी जबहीं मुरली धुनि मन्द बजैहै।
मोहनी तानन सों अटा चढ़ि गोधन गैहे तौ गैहै।।
टेरि कहौं सिगरे ब्रज लोगानि काल्हि कोऊ कितनो समुझैहै।
माइ री वा मुख की मुसकानि सम्हारी न जैहै, न जैहे, न जैहे।।

व्याख्या 1: रसखान ने इन पंक्तियों में गोपियों के कृष्ण प्रेम का वर्णन किया है, वो चाहकर भी कृष्ण को अपने दिलो-दिमाग से निकल नहीं सकती हैं। इसीलिए वे कह रही हैं कि जब कृष्ण अपनी मुरली बजाएंगे, तो वो उससे निकलने वाली मधुर ध्वनि को नहीं सुनेंगी। वो सभी अपने कानों पर हाथ रख लेंगी। उनका मानना है कि भले ही, कृष्ण किसी महल पर चढ़ कर, अपनी मुरली की मधुर तान क्यों न बजायें और गीत ही क्यों न गाएं, जब तक वो उसे नहीं सुनेंगी, तब तक उन पर मधुर तानों का कोई असर नहीं होने वाला। लेकिन अगर गलती से भी मुरली की मधुर ध्वनि उनके कानों में चली गई, तो फिर हम अपने वश में नहीं रह पाएंगी। फिर चाहे हमें कोई कितना भी समझाए, हम कुछ भी समझ नहीं पाएंगी। गोपियों के अनुसार, कृष्ण की मुस्कान इतनी प्यारी लगती है कि उसे देख कर कोई भी उनके वश में आए बिना नहीं रह सकता है। इसी कारणवश, गोपियाँ कह रही हैं कि श्री कृष्ण का मोहक मुख देख कर, उनसे ख़ुद को बिल्कुल भी संभाला नहीं जाएगा। वो सारी लाज-शर्म छोड़कर श्री कृष्ण की ओर खिंची चली जाएँगी।

व्याख्या 2: श्रीकृष्ण की मुरली तथा उनकी मुस्कान पर आसक्त कोई गोपी अपने सखी से कहती है कि जब श्रीकृष्ण मन्द-मन्द मधुर स्वर में मुरली बजाएँगे तो मैं अपने कानों में ऊँगली डाल लूँगी, ताकि मुरली की मधुर तान मुझे अपनी ओर आकर्षित न कर सके या फिर श्रीकृष्ण ऊँटी अटारी पर चढ़कर मुरली की मधुर तान छेङते हुए गोधन (ब्रज में गया जाने वाला लोकगीत) गाने लगें तो गाते रहें, परन्तु मुझ पर उसका कोई असर नहीं हो पायेगा। मैं ब्रज के समस्त लोगों को पुकार-पुकार कर अथवा चिल्लाकर कहना चाहती हूँ कि कल कोई मुझे कितना ही समझा ले, चाहे कोई कुछ भी करे या कहे, परन्तु यदि मैंने श्रीकृष्ण की आकर्षक मुस्कान देख ली तो मैं उसके वश में हो जाऊँगी। हाय री माँ! उसके मुख की मुस्कान इतनी मादक है कि उसके प्रभाव से बच पाना या सँभल पाना अत्यन्त कठिन हैं। मैं उससे प्राप्त सुख को नहीं सँभाल सकूँगी। Raskhan ke Savaiye

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कवि रसखान के सवैयों से सम्बंधित प्रश्न और उनके उत्तर

प्रश्न: ब्रजभूमि के प्रति कवि का प्रेम किन किन रूपों में अभिव्यक्त हुआ है?

उत्तर: कवि ने ब्रजभूमि के प्रति अपने प्रेम को कई रूपों में अभिव्यक्त किया है। कवि की इच्छा है कि वे चाहे जिस रूप में जन्म लें, हर रूप में ब्रजभूमि में ही वाह करें। यदि मनुष्य हों तो गोकुल के ग्वालों के रूप में बसना चाहिए। यदि पशु हों तो नंद की गायों के साथ चरना चाहिए। यदि पत्थर हों तो उस गोवर्धन पहाड़ पर होना चाहिए जिसे कृष्ण ने अपनी उंगली पर उठा लिया था। यदि पक्षी हों तो उन्हें यमुना नदी के किनार कदम्ब की डाल पर बसेरा करना पसंद हैं।

प्रश्न: कवि का ब्रज के वन, बाग और तालाब को निहारने के पीछे क्या कारण हैं?

उत्तर: कवि का कृष्ण के प्रति जो प्रेम है वह सभी सीमाओं से परे है। कवि को ब्रज की एक एक वस्तु में कृष्ण ही दिखाई देते हैं। इसलिए कवि ब्रज के वन, बाग और तालाब को निहारते रहना चाहता है।

प्रश्न: एक लकुटी और कामरिया पर कवि सब कुछ न्योछावर करने को क्यों तैयार हैं?

उत्तर: कवि हर वह काम करने को तैयार है जिससे वह कृष्ण के सान्निध्य में रह सके। इसलिए वह एक लकुटी और कम्बल पर अपना सब कुछ न्योछावर करने को तैयार है। Raskhan ke Savaiye

प्रश्न: सखी ने गोपी से कृष्ण का कैसा रूप धारण करने का आग्रह किया था? अपने शब्दों में वर्णन कीजिए।

उत्तर: सखी ने गोपी से कृष्ण का रूप धारण करने का आग्रह किया था। वे चाहती हैं कि गोपी मोर मुकुट पहनकर, गले में माला डालकर, पीले वस्त्र धारण कर और हाथ में लाठी लेकर पूरे दिन गायों और ग्वालों के साथ घूमने को तैयार हो जाये। इससे सखियों को हर समय कृष्ण के रूप के दर्शन होते रहेंगे।

प्रश्न: आपके विचार से कवि पशु, पक्षी और पहाड़ के रूप में भी कृष्ण का सान्निध्य क्यों प्राप्त करना चाहता है?

उत्तर: कवि कृष्ण से इतना प्रेम करता है कि अपना पूरा जीवन उनके समीप बिताना चाहता है। इसलिए वह जिस रूप में संभव हो उस रूप में ब्रजभूमि में रहना चाहता है। इसलिए कवि पशु, पक्षी और पहाड़ के रूप में भी कृष्ण का सान्निध्य प्राप्त करना चाहता है।

प्रश्न: चौथे सवैये के अनुसार गोपियाँ अपने आप को क्यों विवश पाती हैं?

उत्तर: कृष्ण की मुरली की धुन इतनी मोहक होती है कि उसे सुनने के बाद कोई भी अपना आपा खो देता है। गोपियाँ वह हर काम कर सकती हैं जिससे उनपर कृष्ण के पड़ने वाले प्रभाव को छुपा सकें। लेकिन उनका सारा प्रयास कृष्ण की मुरली की तान पर व्यर्थ हो जाता है। उसके बाद उनके तन मन की खुशी को छुपाना असंभव हो जाता है। इसलिए गोपियाँ अपने आप को विवश पाती हैं।

प्रश्न: भाव स्पष्ट कीजिए:

कोटिक ए कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं।

उत्तर: कृष्ण के प्रेम के लिए वे किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। यहाँ तक कि ब्रज की कांटेदार झाड़ियों के लिए भी वे सौ महलों को भी निछावर कर देंगे।

माइ री वा मुख की मुसकानि सम्हारी न जैहै, न जैहै, न जैहै।

उत्तर: लेकिन गोपियों को ये भी डर है और ब्रजवासी भी कह रहे हैं कि जब कृष्ण की मुरली बजेगी तो उसकी टेर सुनकर गोपियों के मुख की मुसकान सम्हाले नहीं सम्हलेगी। उस मुसकान से पता चल जाएगा कि वे कृष्ण के प्रेम में कितनी डूबी हुई हैं।

प्रश्न: ‘कालिंदी कूल कदंब की डारन’ में कौन सा अलंकार है?

उत्तर: यहाँ पर ‘क’ वर्ण की आवृत्ति हुई है। इसलिए यहाँ अनुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है।

प्रश्न: काव्य सौंदर्य स्पष्ट कीजिए: या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी।

उत्तर: इस वाक्य में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है। कवि ने ब्रजभाषा का प्रयोग बड़ी दक्षता के साथ किया है। इस छोटी सी पंक्ति से कवि ने बहुत बड़ी बात व्यक्त की है। गोपियाँ कृष्ण का रूप धरने को तैयार हैं लेकिन उनकी मुरली को अपने होठों से लगाने को तैयार नहीं हैं। ऐसा इसलिए है कि वह मुरली गोपियों को किसी सौतन की तरह लगती है जो सदैव कृष्ण के अधरों से लगी रहती है। Raskhan ke Savaiye

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