Rahimdas Hindi Biography (रहीमदास का जीवन परिचय)

Ad:

Rahimdas
Rahimdas Hindi

Rahimdas Hindi Biography/ Rahimdas ka jivan parichay Hindi me

रहीमदास का असली नाम रहीम/ अब्दुर्रहीम ख़ाँ/ अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना (Rahim/ Abdul Rahim Khan-e-Khana) था. इनको खान-ए-खाना की उपाधि मुग़ल बादशाह अकबर ने दिया था.

संक्षिप्त जीवनपरिचय

  • जन्म: 17 दिसम्बर, सन 1556 ई ) लाहौर, (मुग़ल काल)
  • मृत्यु: 1 अक्टूबर, सन 1627 ई.)
  • कार्यक्षेत्र: कवि, योद्धा, अकबर के नवरत्नों में से एक
  • पत्नी: महाबानू बेगम
  • पुत्र/पुत्रियां: दो पुत्रियाँ तथा तीन पुत्र
  • पिता: बैरम खां (अकबर का संरक्षक)
  • माता: जमाल खान की बेटी नाम अज्ञात
  • धर्म: इस्लाम
  • काल: भक्ति काल
  • विधा: कविता, दोहा
  • विषय: सामाजिक, आध्यात्मिक
  • भाषा: हिंदी

जीवन परिचय

रहीमदास (Rahimdas Hindi) का जन्म 17 दिसम्बर,1556 को हुआ था. ये हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे। अकबर के दरबार में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान था। रहीम अकबर के नवरत्नों में से एक थे। गुजरात के युद्ध में शौर्य प्रदर्शन के कारण अकबर ने इन्हें ‘खान-ए-खाना ‘ या ‘ख़ानखाना’ की उपाधि दी थी। रहीम अरबी, तुर्की, फ़ारसी, संस्कृत और हिन्दी के अच्छे ज्ञाता थे। इन्हें ज्योतिष का भी ज्ञान था। रहीम स्वयं भी कवियों के आश्रयदाता थे। केशव, आसकरन, मण्डन, नरहरि और गंग जैसे कवियों ने इनकी प्रशंसा की है। रहीम की ग्यारह रचनाएं प्रसिद्ध हैं। इनके काव्य में मुख्य रूप से श्रृंगार, नीति और भक्ति के भाव मिलते हैं। 70 वर्ष की उम्र में 1626 ई. में रहीम की मृत्यु हो गयी.

रहीम के जन्म की कहानी और पिता बैरम खान का परिचय

अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना (Rahimdas Hindi) का जन्म 17 दिसम्बर, 1556 ई. (माघ, कृष्ण पक्ष, गुरुवार) को सम्राट अकबर के प्रसिद्ध अभिभावक बैरम ख़ाँ के यहाँ लाहौर में हुआ था. उस समय रहीम के पिता बैरम ख़ाँ पानीपत के दूसरे युद्ध में हेमू को हराकर बाबर के साम्राज्य की पुनर्स्थापना कर रहे थे। बैरम ख़ाँ, अमीर अली शूकर बेग़ के वंश में से थे। जबकि उनकी माँ सुलताना बेगम मेवाती जमाल ख़ाँ की दूसरी पत्नी थीं। कविता करना बैरम ख़ाँ के वंश का ख़ानदानी परम्परा था। बाबर की सेना में भर्ती होकर रहीम के पिता बैरम ख़ाँ ने अपनी स्वामीभक्ति और वीरता का परिचय दिया और बाबर की मृत्यु के बाद हुमायूँ के विश्वासपात्र बन गए.

इसे भी पढ़ें

कबीरदास का जीवन परिचय

तुलसीदास का जीवन परिचय

रसखान का जीवन परिचय

संत रविदास का जीवन परिचय

सूरदास का जीवन परिचय

बिहारीलाल का जीवन परिचय

महादेवी वर्मा का जीवन परिचय

माखनलाल चतुर्वेदी का जीवन परिचय

राम नरेश त्रिपाठी का जीवन परिचय

सुमित्रा नंदन पंत का जीवन परिचय

हुमायूँ की मृत्यु के बाद बैरम ख़ाँ ने 14 साल के शहज़ादे अकबर को राजगद्दी पर बैठा दिया और ख़ुद उसका संरक्षक बनकर मुग़ल साम्राज्य को स्थापित किया. लेकिन धीरे-धीरे अकबर के दरबारी बैरम खां का विद्रोह करने लगे. इसका मुख्य कारण था, दरबारियों की ईर्ष्या, अकबर की माता हमीदा बानो और धाय माहम अनगा की दुरभि सन्धि एवं बैरम खां का बाबर की बेटी गुलरुख़ बेगम की लड़की सईदा बेगम से शादी करना तथा अमीरों के सामने अकबर के रूप में उपस्थित होना इत्यादि.

पिता बैरम ख़ाँ की हत्या

आख़िरकार हारकर अकबर के कहने पर बैरम ख़ाँ हज के लिए चल पड़े। वह गुजरात में पाटन के प्रसिद्ध सहस्रलिंग तालाब में नौका विहार या नहाकर जैसे ही निकले, तभी उनके एक पुराने विरोधी अफ़ग़ान सरदार मुबारक ख़ाँ ने धोखे से उनकी पीठ में छुरा भोंककर उनकी ह्त्या कर दी। कुछ भिखारी लाश उठाकर फ़क़ीर हुसामुद्दीन के मक़बरे में ले गए और वहीं पर बैरम ख़ाँ को दफ़ना दिया गया। ‘मआसरे रहीमी’ ग्रंथ में बैरम खां की मृत्यु का कारण शेरशाह के पुत्र सलीम शाह की कश्मीरी बीवी से हुई लड़की को माना गया है, जो हज के लिए बैरम ख़ाँ के साथ जा रही थी। इससे अफ़ग़ानियों को अपनी बेहज़्ज़ती महसूस हुई और उन्होंने हमला करके बैरम ख़ाँ को समाप्त कर दिया।

रहीम का पिता बैरम खां

लेकिन यह सम्भव नहीं लगता, क्योंकि ऐसा होने पर तो रहीम के लिए भी ख़तरा बढ़ जाता। उस समय के लोग पूर्ववर्ती शासक वंश के उत्तराधिकारी को समाप्त कर दिया करते थे. वह अफ़ग़ानी मुबारक ख़ाँ मात्र बैरम ख़ाँ का वध कर ही नहीं रुका, बल्कि डेरे पर आक्रमण करके लूटमार भी करने लगा। तब स्वामीभक्त बाबा जम्बूर और मुहम्मद अमीर ‘दीवाना’ चार वर्षीय रहीम (Rahimdas Hindi) को लेकर किसी तरह अफ़ग़ान लुटेरों से बचते हुए अहमदाबाद जा पहुँचे। चार महीने वहाँ रहकर फिर वे आगरा की तरफ़ चल पड़े। अकबर को जब अपने संरक्षक की हत्या की ख़बर मिली तो उसने रहीम और परिवार की हिफ़ाज़त के लिए कुछ लोगों को इस आदेश के साथ वहाँ भेजा कि उन्हें दरबार में ले आएँ।

रहीम को अकबर का संरक्षण

अपने संरक्षक बैरम ख़ाँ की हत्या के बाद उसके परिवार के संरक्षण की जिम्मेदारी बादशाह अकबर ने ली. रहीम (Rahimdas Hindi) और उनकी माता तथा परिवार के अन्य सदस्यों को सन् 1562 में अकबर के राजदरबार में लाया गया। अकबर ने बैरम ख़ाँ के कुछ दुश्मन दरबारियों के विरोध के बावजूद बालक रहीम को बुद्धिमान समझकर उसके लालन–पालन का दायित्व स्वयं ग्रहण किया। अकबर ने बैरम खां की विधवा से निकाह कर लिया और रहीम का पालन–पोषण तथा शिक्षा-दीक्षा शहजादों की तरह शुरू करवाई, जिससे दस–बारह साल की उम्र में ही रहीम का व्यक्तित्व आकार ग्रहण करने लगा। अकबर ने शहज़ादों को प्रदान की जाने वाली उपाधि मिर्ज़ा ख़ाँ से रहीम को सम्बोधित करना शुरू किया।

अकबर रहीम (Rahimdas Hindi) से बहुत अधिक प्रभावित था और उन्हें अधिकांश समय तक अपने साथ ही रखता था। रहीम को ऐसे उत्तरदायित्व पूर्ण काम सौंपे जाते थे, जो किसी नए सीखने वाले को नहीं दिए जा सकते थे। परन्तु उन सभी कामों में ‘मिर्ज़ा ख़ाँ’ अपनी योग्यता के बल पर सफल होते थे। अकबर ने रहीम की शिक्षा के लिए मुल्ला मुहम्मद अमीन को नियुक्त किया। रहीम ने तुर्की, अरबी एवं फ़ारसी भाषा सीखी। उन्होंने छन्द रचना, कविता करना, गणित, तर्क शास्त्र और फ़ारसी व्याकरण का ज्ञान प्राप्त किया। संस्कृत का ज्ञान भी उन्हें अकबर की शिक्षा व्यवस्था से ही मिला। काव्य रचना, दानशीलता, राज्य संचालन, वीरता और दूरदर्शिता आदि गुण उन्हें अपने माँ-बाप से संस्कार में मिले थे। सईदा बेगम उनकी दूसरी माँ थीं। वह भी कविता करती थीं।

रहीम शिया और सुन्नी के विचार–विरोध से शुरू से आज़ाद थे। इनके पिता तुर्कमान शिया थे और माता सुन्नी। इसके अलावा रहीम को छः साल की उम्र से ही अकबर जैसे उदार विचारों वाले व्यक्ति का संरक्षण प्राप्त हुआ था। इन सभी ने मिलकर रहीम में अद्भुत विकास की शक्ति उत्पन्न कर दी। किशोरावस्था में ही वे यह समझ गए कि उन्हें अपना विकास अपनी मेहनत, सूझबूझ और शौर्य से करना है। रहीम को अकबर का संरक्षण ही नहीं, बल्कि प्यार भी मिला। रहीम भी उनके हुक़्म का पालन करते थे, इसलिए विकास का रास्ता खुल गया। अकबर ने रहीम से अंग्रेज़ी और फ्रेंच भाषा का भी ज्ञान प्राप्त करने को कहा। अकबर के दरबार में संस्कृत के कई विद्वान् थे; बदाऊंनी ख़ुद उनमें से एक था।

रहीम का विवाह

रहीम ‘मिर्ज़ा ख़ाँ’ की कार्यकुशलता, लगन और योग्यता देखकर अकबर ने उनको शासक वंश से सीधे सम्बद्ध करने का फ़ैसला किया, क्योंकि ऐसा करके ही रहीम के दुश्मनों का मुँह बन्द किया जा सकता था और उन्हें अन्तःपुर की राजनीति से बचाया जा सकता था। अकबर ने अपनी धाय माहम अनगा की पुत्री और अज़ीज़ कोका की बहन ‘माहबानो’ से रहीम का निकाह करा दिया। रहीम का विवाह लगभग सोलह साल की उम्र में कर दिया गया था। माहबानो से रहीम के तीन पुत्र और दो पुत्रियाँ हुईं। पुत्रों का नाम इरीज़, दाराब और करन अकबर के द्वारा ही रखा गया था। पुत्री जाना बेगम की शादी शहज़ादा दानियाल से सन् 1599 में और दूसरी पुत्री की शादी मीर अमीनुद्दीन से हुई। रहीम को सौधा जाति की एक लड़की से रहमान दाद नामक एक पुत्र हुआ और एक नौकरानी से मिर्ज़ा अमरुल्ला हुए। एक पुत्र हैदर क़ुली हैदरी की बचपन में ही मृत्यु हो गई थी।

रहीम का उत्कर्ष

रहीम (Rahimdas Hindi) के भाग्य का उत्कर्ष सन् 1573 से शुरू हुआ जो अकबर के शासन पर्यन्त सन् 1605 तक चलता रहा। इस बीच बादशाह अकबर एक बार रहीम से नाराज़ भी हो गए, लेकिन ज़्यादा दिनों तक यह नाराज़गी नहीं रह सकी। सन् 1572 में जब अकबर पहली बार गुजरात विजय के लिए गया तो 16 वर्षीय रहीम ‘मिर्ज़ा ख़ाँ’ उसके साथ ही थे। ख़ान आज़म को गुजरात का सूबेदार नियुक्त करके बादशाह अकबर लौट आए। लेकिन उसके लौटते ही ख़ान आज़म को गुजराती परेशान करने लगे। उसे चारों ओर से नगर में घेर लिया गया। यह समाचार पाकर बादशाह अकबर सन् 1573 में 11 दिनों में ही साबरमती नदी के किनारे पहुँच गया। रहीम ‘मिर्ज़ा ख़ाँ’ को अकबर के नेतृत्व में मध्य कमान का कार्यभार सौंपा गया। मिर्ज़ा ख़ाँ ने बड़ी बहादुरी से युद्ध करके दुश्मन को परास्त किया। यह उनका पहला युद्ध था।

अकबर के साथ ही रहीम लौट आए। कुछ वक़्त बाद मिर्ज़ा ख़ाँ को राणा प्रताप, जो उन दिनों दक्षिणी पहाड़ियों के दुर्गम जंगल में थे, से लड़ने के लिए राजा मानसिंह और भगवान दास के साथ भेजा गया। आंशिक सफलता के बाद भी जब राणा प्रताप अपराजित रहे तो शाहवाज़ ख़ाँ के नेतृत्व में पुनः सेना भेजी गई। इसमें भी रहीम ‘मिर्ज़ा ख़ाँ’ शामिल थे जिन्होंने 4 अप्रैल, 1578 को दोबारा आक्रमण किया। अभी तक रहीम प्रसिद्ध सेनानायकों के नेतृत्व में युद्ध का अनुभव प्राप्त कर रहे थे।

रहीम मिर्ज़ा ख़ाँ को ज़िम्मेदारी का पहला स्वतंत्र पद सन् 1580 में प्राप्त हुआ। फिर अकबर ने उन्हें मीर अर्ज़ के पद पर नियुक्त किया। इसके बाद सन् 1583 में उन्हें शहज़ादा सलीम का अतालीक़ (शिक्षक) बना दिया गया। रहीम को इसे नियुक्ति से बहुत खुशी हासिल हुई। उन्होंने इस उपलक्ष्य में लोगों को एक शानदार दावत दी, जिसमें ख़ुद बादशाह अकबर भी मौजूद था। मिर्ज़ा ख़ाँ और उनकी पत्नी माहबानो को बादशाह ने उपहारों से सम्मानित किया।

रहीम अभी इस दायित्व का निर्वाह कर ही रहे थे कि उन्हें ख़बर मिली कि आगरे के क़िले से भागे हुए क़ैदी मुज़फ़्फ़र ख़ाँ ने फिर सेना तैयार करनी शुरू कर दी है। बैरम ख़ाँ का दुश्मन शहाबुद्दीन उस वक़्त गुजरात का सूबेदार था। वह अकबर का हुक्म नहीं मान रहा था। अकबर को इस बात का शक था कि वह विश्वासघात कर रहा है।

रहीम (Rahimdas Hindi) की गुजरात विजय और वहाँ  की सूबेदारी

अकबर के शासनकाल में सन् 1580 से सन् 1583 तक कठिन समय था, क्योंकि उसके दरबार के अमीर उसके ख़िलाफ़ साज़िश रच रहे थे और दक्षिण में स्थिति विपरीत थी। ऐसे वक़्त में अकबर ने रहीम ‘मिर्ज़ा ख़ाँ’ को गुजरात की सूबेदारी देकर दुश्मन को पराजित करने के लिए भेजा। उधर मुज़फ़्फ़र ख़ाँ ने एतमाद ख़ाँ को हराकर अहमदाबाद पर अधिकार कर लिया था। साथ ही प्राप्त ख़ज़ाने से 40,000 सेना खड़ी कर ली थी।

बादशाह अकबर ने 22 सितंबर, 1583 को फ़तेहपुर सीकरी के राजपूतों और बाड़ा के सैयदों तथा पठान सैनिकों के साथ रहीम को विदा किया। रहीम इन बहादुर सैनिकों सहित द्रुतगति से आगे बढ़ते हुए मिरथा पहुँचे, जहाँ उन्हें मुज़फ़्फ़र ख़ाँ के द्वारा कुतुबुद्दीन की हत्या और भड़ौच पर अधिकार का समाचार मिला। रहीम अपने साथ के लोगों से यह ख़बर छिपाए तेज़ी से आगे बढ़ते हुए सिरोही जा पहुँचे, जहाँ निज़ामुद्दीन उनकी अगवानी में खड़े थे। इससे उन्हें नवीनतम स्थिति का पता चला। 31 दिसम्बर को वह पाटन पहुँचे और एक दिन रुककर मुग़ल अधिकारियों की गोष्ठी में विचार–विमर्श किया। लोगों ने रहीम को मालवा सेना की प्रतीक्षा करने की सलाह दी लेकिन विश्वसनीय मित्रों मुंशी दौलत ख़ाँ लोदी ने कहा कि यही उचित अवसर है। वे आक्रमण करके ‘ख़ानख़ाना’ की उपाधि प्राप्त करें, क्योंकि यह उपाधि उनके पिता को भी मिली थी। रहीम को मीर मुंशी दौलत ख़ाँ लोदी की बात जंची। वे आक्रमण करने के लिए चल पड़े। 12 जनवरी, 1584 को उन्होंने अहमदाबाद से 6 मील दूर सरखेज गाँव के निकट साबरमती नदी के बाएँ किनारे पर पहुँचकर डेरा डाल दिया। मुज़फ़्फ़र ख़ाँ की सेना का पड़ाव नदी के उस पार था। उसके पास 40,000 सेना थी जबकि रहीम के पास मात्र 10,000 सेना थी। ऐसी हालत में नदी पार करना बहुत ही ख़तरनाक सिद्ध हो सकता था।

इन हालात का सामना रहीम ने जिस मनौवैज्ञानिक पद्धति से किया, वह युद्ध विज्ञान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। रहीम ने पदाधिकारियों को एक पत्र पढ़कर सुनाया कि बादशाह एक विशाल सेना लेकर ख़ुद आ रहे हैं और उनके आने तक आक्रमण न किया जाए। इससे अमीरों का मनोबल बढ़ा। वे सेनापति के आदेशों का पालन करने में लग गए। दुश्मनों को जब अपने जासूसों से पता चला कि बादशाह ख़ुद आ रहे हैं तो 16 जनवरी को नदी पार करके मुज़फ़्फ़र ख़ाँ ने जल्दबाज़ी के साथ आक्रमण कर दिया।

अपनी रणनीति के अनुसार रहीम (Rahimdas Hindi) 300 चुने हुए वीरों और 100 विशालकाय हाथियों के साथ सेना के मध्य में रहते हुए युद्ध भूमि में उतरे। राजपूतों और सैयदों ने इस युद्ध में बड़ी वीरता का प्रदर्शन किया। चारों तरफ़ मृत्यु का ताण्डव था। दोनों पक्षों को जब मुज़फ़्फ़र ख़ाँ ने गुत्थम–गुत्था देखा तो सात हज़ार सैनिकों के साथ मध्य भाग की ओर बढ़ा। मुग़ल सैनिक विशाल सेना को मध्य भाग की तरफ़ आता देख युद्ध स्थल से भागने लगे। ऐसी स्थिति में रहीम ने हाथियों की सेना आगे करने की युद्धनीति अपनाई। गजराजों द्वारा कुचले जाने से शत्रु पक्ष में त्राहि–त्राहि मच गई। जब तक वे सम्भलते, तब तक निज़ामुद्दीन ने पीछे से और राय दुर्ग सिसौदिया ने बाईं तरफ़ से आक्रमण कर दिया।

रहीमदास (Rahimdas Hindi) का साहित्यिक परिचय

हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल में रहीम का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने अरबी, फ़ारसी, संस्कृत, हिन्दी आदि का गहन अध्ययन किया। वे राजदरबार में अनेक पदों पर कार्य करते हुए भी साहित्य सेवा में लगे रहे। रहीम का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था। वे स्मरण शक्ति, हाज़िर–जवाबी, काव्य और संगीत के मर्मज्ञ थे। वे युद्धवीर के साथ–साथ दानवीर भी थे।

अकबर के दरबारी कवि गंग के दो छन्दों पर रीझकर इन्होंने 36 लाख रुपये दे दिए थे। रहीम ने अपनी कविताओं में अपने लिए ‘रहीम’ के बजाए ‘रहिमन’ का प्रयोग किया है। वे इतिहास और काव्य जगत में अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना के नाम से प्रसिद्ध हैं। रहीम मुसलमान होते हुए भी कृष्ण भक्त थे। उनके काव्य में नीति, भक्ति–प्रेम तथा श्रृंगार आदि के दोहों का समावेश है। साथ ही जीवन में आए विभिन्न मोड़ भी परिलक्षित होते हैं।

रहीम की भाषा (Rahimdas ki Bhasha Shaili)

रहीम ने अपने अनुभवों को सरल और सहज शैली में मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान की। उन्होंने ब्रज भाषा, पूर्वी अवधी और खड़ी बोली को अपनी काव्य भाषा बनाया। किन्तु ब्रज भाषा उनकी मुख्य शैली थी। गहरी से गहरी बात भी उन्होंने बड़ी सरलता से सीधी-सादी भाषा में कह दी। भाषा को सरल, सरस और मधुर बनाने के लिए तद्भव शब्दों का अधिक प्रयोग किया।

रहीम (Rahimdas Hindi) अरबी, तुर्की, फ़ारसी, संस्कृत और हिन्दी के अच्छे जानकार थे। हिन्दू-संस्कृति से ये भली-भाँति परिचित थे। इनकी नीतिपरक उक्तियों पर संस्कृत कवियों की स्पष्ट छाप परिलक्षित होती है।

कुल मिलाकर इनकी 11 रचनाएँ प्रसिद्ध हैं। इनके प्राय: 300 दोहे ‘दोहावली’ नाम से संग्रहीत हैं। मायाशंकर याज्ञिक का अनुमान था कि इन्होंने सतसई लिखी होगी किन्तु वह अभी तक प्राप्त नहीं हो सकी है। दोहों में ही रचित इनकी एक स्वतन्त्र कृति ‘नगर शोभा’ है। इसमें 142 दोहे हैं। इसमें विभिन्न जातियों की स्त्रियों का श्रृंगारिक वर्णन है।

रहीम अपने बरवै छन्द के लिए प्रसिद्ध हैं। इनका ‘बरवै नायिका भेद’ अवधी भाषा में नायिका-भेद का सर्वोत्तम ग्रन्थ है। इसमें भिन्न-भिन्न नायिकाओं के केवल उदाहरण दिये गये हैं। मायाशंकर याज्ञिक ने काशीराज पुस्तकालय और कृष्णबिहारी मिश्र पुस्तकालय की हस्त लिखित प्रतियों के आधार पर इसका सम्पादन किया है। रहीम ने बरवै छन्दों में गोपी-विरह वर्णन भी किया है।

मेवात से इनकी एक रचना ‘बरवै’ नाम की इसी विषय पर रचित प्राप्त हुई है। यह एक स्वतन्त्र कृति है और इसमें 101 बरवै छन्द हैं। रहीम के श्रृंगार रस के 6 सोरठे प्राप्त हुए हैं। इनके ‘श्रृंगार सोरठ‘ ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है किन्तु अभी यह प्राप्त नहीं हो सका है।

रहीम की एक कृति संस्कृत और हिन्दी खड़ी बोली की मिश्रित शैली में रचित ‘मदनाष्टक’ नाम से मिलती है। इसका वर्ण्य-विषय कृष्ण की रासलीला है और इसमें मालिनी छन्द का प्रयोग किया गया है। इसके कई पाठ प्रकाशित हुए हैं। ‘सम्मेलन पत्रिका’ में प्रकाशित पाठ अधिक प्रामणिक माना जाता है। इनके कुछ भक्ति विषयक स्फुट संस्कृत श्लोक ‘रहीम काव्य’ या ‘संस्कृत काव्य’ नाम से प्रसिद्ध हैं। कवि ने संस्कृत श्लोकों का भाव छप्पय और दोहा में भी अनूदित कर दिया है।

कुछ श्लोकों में संस्कृत के साथ हिन्दी भाषा का प्रयोग हुआ है। रहीम बहुज्ञ थे। इन्हें ज्योतिष का भी ज्ञान था। इनका संस्कृत, फ़ारसी और हिन्दी मिश्रित भाषा में ‘खेट कौतुक जातकम्’ नामक एक ज्योतिष ग्रन्थ भी मिलता है किन्तु यह रचना प्राप्त नहीं हो सकी है। ‘भक्तमाल’ में इस विषय के इनके दो पद उद्धृत हैं। विद्वानों का अनुमान है कि ये पद ‘रासपंचाध्यायी’ के अंश हो सकते हैं।

रहीम ने ‘वाकेआत बाबरी’ नाम से बाबर लिखित आत्मचरित का तुर्की से फ़ारसी में भी अनुवाद किया था। इनका एक ‘फ़ारसी दीवान’ भी मिलता है।

रहीम के काव्य का मुख्य विषय श्रृंगार, नीति और भक्ति है। इनकी विष्णु और गंगा सम्बन्धी भक्ति-भावमयी रचनाएँ वैष्णव-भक्ति आन्दोलन से प्रभावित होकर लिखी गयी हैं। नीति और श्रृंगारपरक रचनाएँ दरबारी वातावरण के अनुकूल हैं। रहीम की ख्याति इन्हीं रचनाओं के कारण है। बिहारी लाल और मतिराम जैसे समर्थ कवियों ने रहीम की श्रृंगारिक उक्तियों से प्रभाव ग्रहण किया है। व्यास, वृन्द और रसनिधि आदि कवियों के नीति विषयक दोहे रहीम से प्रभावित होकर लिखे गये हैं। रहीम का ब्रजभाषा और अवधी दोनों पर समान अधिकार था। उनके बरवै अत्यन्त मोहक प्रसिद्ध है कि तुलसीदास को ‘बरवै रामायण’ लिखने की प्रेरणा रहीम से ही मिली थी। ‘बरवै’ के अतिरिक्त इन्होंने दोहा, सोरठा, कवित्त, सवैया, मालिनी आदि कई छन्दों का प्रयोग किया है।

रहीम की रचनाएँ (Rahimdas ki Rachnayen)

रहीम अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने तुर्की भाषा के एक ग्रन्थ ‘वाक़यात बाबरी’ का फ़ारसी में अनुवाद किया। फ़ारसी में अनेक कविताएँ लिखीं। ‘खेट कौतूक जातकम्’ नामक ज्योतिष ग्रन्थ लिखा, जिसमें फ़ारसी और संस्कृत शब्दों का अनूठा मेल था। इनका काव्य इनके सहज उद्गारों की अभिव्यक्ति है। इन उद्गारों में इनका दीर्घकालीन अनुभव निहित है। ये सच्चे और संवेदनशील हृदय के व्यक्ति थे। जीवन में आने वाली कटु-मधुर परिस्थितियों ने इनके हृदय-पट पर जो बहुविध अनुभूति रेखाएँ अंकित कर दी थी, उन्हीं के अकृत्रिम अंकन में इनके काव्य की रमणीयता का रहस्य निहित है। इनके ‘बरवै नायिका भेद’ में काव्य रीति का पालन ही नहीं हुआ है, वरन् उसके माध्यम से भारतीय गार्हस्थ्य-जीवन के लुभावने चित्र भी सामने आये हैं। मार्मिक होने के कारण ही इनकी उक्तियाँ सर्वसाधारण में विशेष रूप से प्रचलित हैं। रहीम-काव्य के कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें-

  • रहीम रत्नावली (सं. मायाशंकर याज्ञिक-1928 ई.) और
  • रहीम विलास (सं. ब्रजरत्नदास-1948 ई., द्वितीयावृत्ति) प्रामाणिक और विश्वसनीय हैं। इनके अतिरिक्त
  • रहिमन विनोद (हि. सा. सम्मे.),
  • रहीम ‘कवितावली (सुरेन्द्रनाथ तिवारी),
  • रहीम’ (रामनरेश त्रिपाठी),
  • रहिमन चंद्रिका (रामनाथ सुमन),
  • रहिमन शतक (लाला भगवानदीन) आदि संग्रह भी उपयोगी हैं।

रहीमदास (Rahimdas Hindi) के जीवन परिचय के विशेष बिंदु

  • रहीम जब 5 वर्ष के थे, उसी समय गुजरात के पाटन नगर में (1561 ई.) इनके पिता की हत्या कर दी गयी। इनका पालन-पोषण स्वयं अकबर की देख-रेख में हुआ।
  • इनकी कार्यक्षमता से प्रभावित होकर अकबर ने 1572 ई. में गुजरात की चढ़ाई के अवसर पर इन्हें पाटन की जागीर प्रदान की। अकबर के शासनकाल में उनकी निरन्तर पदोन्नति होती रही।
  • 1576 ई. में गुजरात विजय के बाद इन्हें गुजरात की सूबेदारी मिली।
  • 1579 ई. में इन्हें ‘मीर अर्जु’ का पद प्रदान किया गया।
  • 1583 ई. में इन्होंने बड़ी योग्यता से गुजरात के उपद्रव का दमन किया।
  • अकबर ने प्रसन्न होकर 1584 ई. में इन्हें’ ख़ानख़ाना’ की उपाधि और पंचहज़ारी का मनसब प्रदान किया।
  • 1589 ई. में इन्हें ‘वकील’ की पदवी से सम्मानित किया गया।
  • 1604 ई. में शहज़ादा दानियाल की मृत्यु और अबुलफ़ज़ल की हत्या के बाद इन्हें दक्षिण का पूरा अधिकार मिल गया। जहाँगीर के शासन के प्रारम्भिक दिनों में इन्हें पूर्ववत सम्मान मिलता रहा।
  • 1623 ई. में शाहजहाँ के विद्रोही होने पर इन्होंने जहाँगीर के विरुद्ध उनका साथ दिया।
  • 1625 ई. में इन्होंने क्षमा याचना कर ली और पुन: ‘ख़ानख़ाना’ की उपाधि मिली।
  • 1626 ई. में 70 वर्ष की अवस्था में इनकी मृत्यु हो गयी।

ख़ान ए ख़ाना मक़बरा

रहीम का मक़बरा

ख़ान ए ख़ाना के नाम से प्रसिद्ध मक़बरा अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना का है, इस मक़बरे का निर्माण अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना के द्वारा अपनी बेगम की याद में करवाया गया था, जिनकी मृत्यु 1598 ई. में हो गयी थी लेकिन बाद में स्वयं अब्दुर रहीम को भी 1627 ई. में उनके मृत्यु के पश्चात् इसी मक़बरे में दफनाया गया।

Ad:

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*


This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.